छत्तीसगढ़बिलासपुर

“मजदूर” नही मजबूर…. मजदूर अब हीरो का रोल अदा नही करते

(राकेश प्रताप सिंह परिहार की कलम)

“मजदूर” नही मजबूर ..
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एक दशक था की मजदूरों के हक की लड़ाई देश के नुक्कड़ों से लेकर समाज के मनोरंजन के लिए बनने वाली फिल्मे तक मजदूरों और उनके हकों पर आधारित होती थी पर न आज मजदूरों के रोल अदा करते हीरो है और न ही नुक्कड़ों में होती सभाएं है जैसे समाज ही उन्हें नकार चुका हो ।

( राकेश प्रताप सिंह परिहार)

बचपन में जब भी लाल झंडे में हसिए का निशान देखते मन में उनके प्रति एक नफरत भरे भाव उभरता वजह आए दिन कार्य बंद करना ,आंदोलन करना पर यह स्कूल के दिनों की बात थी।
उम्र गुजराती गई और उम्र गुजरने के साथ साथ नजरिए में भी बदलाव हुआ और समझ में आया की मजदूरों के अधिकार भी उम्रद्राज हो गए।
जैसे जैसे विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश का झुकाव पूंजीवादी व्यस्था की ओर झुकता गया मजदूरों और उनके अधिकारों का हनन बढ़ता गया और मजदूर संगठनों के रीढ़ की हड्डी भी झुकती चली गई।
अब न ही कोई मजदूरों की बात करता और न ही मजदूरों को हक दिलाता ..एक दशक था की मजदूरों के हक की लड़ाई देश के नुक्कड़ों से लेकर समाज के मनोरंजन के लिए बनने वाली फिल्मे तक मजदूरों और उनके हकों पर आधारित होती थी पर न आज मजदूरों के रोल अदा करते हीरो है और न ही नुक्कड़ों में होती सभाएं है जैसे समाज ही उन्हें नकार चुका हो ।

समाज का नजरिया उनके प्रति बहुत ही घिनौना हो गया है एक समाज में उनके हैसियत के हिसाब की बस्तियां है कही खटीक मोहल्ला है तो कही स्वीपर मोहल्ला इस आधुनिक युग में भी हमारे समाज का एक वह वर्ग है जो आपके द्वारा पैदा किए हुए मैला को साफ कर रहा .. हर साल दहाईयो में लोग नाली साफ करते करते अपने प्राण त्याग देते है और समाज के आंखो में हया के दो बूंद में नही आते और तुर्रा यह की कौन कहता उनको यह कार्य करने को ।
आप सोच रहे होंगे की न ही आज 01 मई है , क्युकी 01 मई मजदूरों का दिवस होता है फिर मेरे द्वारा मजदूरों की बात क्यू कर कर रहा हूं मेरे मन में इतना उद्धेलना क्यू है।

जब आपके अपने आस पास मजदूरों के अधिकारों के हनन होते देखते ही मन बेचैन हो उठता है । बात अगर अधिकारों की हो तो उसे बचाने के लिए लड़ा जासकता है पर जब वेदना मानवीय ज़मीर की गिरने की हो तो इससे लड़ने का हुनर कहा से लाया जाय।

मजदूर एक ऐसा शब्द है जिसके बोलने में ही मजबूरी झलकती है। सबसे अधिक मेहनत करने वाला मजदूर आज भी सबसे अधिक बदहाल स्थिति में है। दुनिया में एक भी ऐसा देश नहीं है जहां मजदूरों की स्थिति में सुधार हो पाया है। दुनिया के सभी देशों की तरह हमारी सरकारें भी मजदूरों के हित के लिए बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी करती हैं मगर जब उनकी भलाई के लिए कुछ करने का समय आता है तो सभी पीछे हट जाती है। इसीलिए मजदूरों की स्थिति में सुधार नहीं हो पाता है। हमारे देश की सरकार भी मजदूर हितों के लिए बहुत बातें करती है, बहुत सी योजनाएं व कानून बनाती है। मगर जब उनको अमलीजामा पहनाने का समय आता है तो सब इधर-उधर ताकने लग जाते हैं। मजदूर फिर बेचारा मजबूर बनकर रह जाता है।

गांव में खेती के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है। इसकी बड़ी वजह खेती होने वाला लाभांश दिन प्रति कम होता जा रहा है जिसके कारण बड़ी संख्या में लोग मजदूरी करने के लिए शहरों की तरफ पलायन कर जाते हैं। जहां ना उनके रहने की कोई सही व्यवस्था होती है ही उनको कोई ढ़ग का काम मिल पाता है। मगर आर्थिक कमजोरी के चलते शहरों में रहने वाले मजदूर वर्ग जैसे तैसे कर वहां अपना गुजर-बसर करते हैं।

बड़े शहरों में झोंपड़ पट्टी बस्तियों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। जहां रहने वाले लोगों को कैसी विषम परिस्थितियों का सामना करता है। इसको देखने की न तो सरकार को फुर्सत है ना हीं किसी राजनीतिक दलों के नेताओं को। झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले मजदूरों को शौचालय जाने के लिए भी घंटों लाइनों में खड़ा रहना पड़ता है। झोपड़ पट्टी बस्तियों में ना रोशनी की सुविधा रहती है और ना पीने को साफ पानी मिलता है और ना ही स्वच्छ वातावरण। शहर के किसी गंदे नाले के आसपास बसने वाली झोपड़ पट्टियों में रहने वाले गरीब तबके के मजदूर कैसा नारकीय जीवन गुजारते हैं। उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है।
हमारे देश में आज सबसे ज्यादा कोई प्रताड़ित व उपेक्षित है तो वो मजदूर वर्ग है। मजदूरो की सुनने वाला देश में कोई नहीं हैं।

हालांकि, कुछ मजदूर यूनियने अपना फर्ज भी निभाती है मगर उनकी संख्या कम है। हमारे देश में मजदूरों की स्थिति सबसे भयावह होती जा रही है। देश का मजदूर दिन प्रतिदिन और अधिक गरीब होता जा रहा है। दिन रात रोजी-रोटी के जुगाड़ में जद्दोजहद करने वाले मजदूर को तो दो जून की रोटी मिल जाए तो मानों सब कुछ मिल गया। आजादी के इतने सालो में भले ही देश में बहुत कुछ बदल गया होगा। लेकिन मजदूरों के हालात तो आज भी नहीं बदले हैं तो फिर श्रमिक वर्ग किस लिये मजदूर दिवस मनाये।

हर बार मजदूर दिवस के अवसर पर सरकारे मजदूरो के हित की योजनाओं के बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करती है। जिनमें मजदूरों के हितों की बहुत सी बाते लिखी होती हैं। किन्तु उनमें से अमल किसी बात पर नहीं हो पाता है। देश में सभी राजनीतिक दलों ने अपने यहां मजदूर संगठन बना रखे हैं। सभी दल दावा करते हैं कि उनका दल मजदूरो के भले के लिये काम करता है। मगर ये सिर्फ कहने सुनने में ही अच्छा लगता है हकीकत इससे कहीं उलटी हैं।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए ………………………………. उत्तरदाई
नहीं है।